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मौजूदा वक़्त में आम आदमी पार्टी की आन्तरिक राजनीति कुछ इस कदर हाशिये पर पहुँच चुकी है जिसका अंदाजा शायद ही अरविन्द केजरीवाल को भी नहीं रहा होगा। गत 10 फरवरी को आये दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों में आम आदमी पार्टी ने चमत्कारिक प्रदर्शन करते हुए कुल 70 सीटों में 67 सीटें जीत कर सभी को अचंभित कर दिया था। जीत से महज कुछ दिन बीतते ही आप को एक ऐसे राजनैतिक संकट ने घेर लिया है जिससे वह महीने भर बाद भी नहीं उबर सकी है।
बीते माह मार्च के शुरूआती हफ्ते में आप के कद्दावर नेता कुमार विश्वास की अध्यक्षता में हुई पीएसी की बैठक में कुछ ऐसे निर्णय लिए गए जिससे संकट कमोबेश और गहराता चला गया। बैठक में लिए गए फैसले की वजह से पहले तो पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर कमिटी (पीएसी) से योगेन्द्र यादव व प्रशांत भूषण की छुट्टी कर दी गयी और कुछ ही दिनों बाद उन्हें पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी निकाल फेंका गया। आम आदमी पार्टी के भीतर व्यक्तिवाद की इस लड़ाई में महज योगेन्द्र, प्रशांत ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी आम आदमी पार्टी को भी खासा नुकसान होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। अगर हम वर्तमान समय में चल रही पार्टी के भीतर की लड़ाई के मूल मुद्दे का कारण जाने तो पहली नज़र में इसमें कई कारण निकल कर सामने आते हैं।
पार्टी की सभी अहम् जगहों से दोनों नेताओं को बाहर फेंके जाने का पहला जो सबसे बडा कारण साफ़ तौर पर कई स्टिंग्स व् अन्य मीडिया रिपोर्ट्स से निकल कर सामने आया है, उससे योगेन्द्र यादव व् प्रशांत भूषण पर आप व पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली चुनावों में हरवाने की कोशिश करने जैसे गंभीर आरोप शामिल हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी व सामने आये स्टिंग में केजरीवाल ने साफ़ तौर पर दोनों नेताओं पर इस तरह के गंभीर आरोप लगाये हैं।
पार्टी के सभी प्रमुख पदों से की गयी योगेन्द्र व् प्रशांत की छुट्टी के कई अन्य कारण भी हैं। योगेन्द्र व् प्रशांत के पक्ष की बात माने तो उनकी यह छुट्टी लोकतान्त्रिक रूप से आवश्यक व् पार्टी हितों में दिए गए सुझावों को न मानने की वजह से की गयी है। बीते एक महीने से कई टीवी चैनलों व अख़बार पर प्रसारित व प्रकाशित हुए योगेन्द्र यादव के तमाम साक्षात्कारों में उन्होंने अरविन्द केजरीवाल के लगाये गए तमाम गंभीर आरोपों को नकारा ही है।
अगर हम योगेन्द्र व प्रशांत भूषण के पार्टी भीतर उठाये गए सवालों पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि दोनों नेताओं ने वही प्रश्न खड़े किये हैं जिसको अरविन्द केजरीवाल अन्ना आन्दोलन के वक़्त खड़े किया करते थे। मसलन जनलोकपाल आन्दोलन के वक़्त कांग्रेस के साथ बंद कमरे में की जाने वाली तमाम बैठकों को अरविन्द व उनकी टीम विडियो रिकॉर्डिंग करवाने के साथ साथ जनता को दिखाने की मांग बड़े जोर शोर से उठती रही थी। इतना ही नहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ तत्कालीन वक़्त में की गयी तमाम बातो को भी केजरीवाल रामलीला मैदान में चल रहे इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन के सार्वजनिक मंच पर लोकतंत्र की दुहाई देते हुए जनता के सामने कहते रहे थे। लेकिन अब केजरीवाल व तमाम अन्य नेता पार्टी में किसी मुद्दे पर असहमति होने के वक़्त मीडिया के जरिये से जनता तक अपनी बात पहुंचाने का विरोध कर रहे हैं।
इसके इतर आम आदमी पार्टी बीते कुछ वर्षों में कद्दावर नेता व सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का समर्थन करते हुए उनसे तमाम मुद्दों पर राजनीतिक लाभ लेती आई है। फिर चाहे 2जी घोटाले का मसला हो या फिर कोयला घोटाले पर सरकार को घेरने की बात रही हो। इन सभी मुद्दों पर आम आदमी पार्टी बेहिचक प्रशांत भूषण का कानूनी सहयोग लेती रही है। इसीलिए अब यह सवाल उठना जायज है कि वैचारिक स्तर पर विरोध के चलते वरिष्ठ नेताओं को अपनी पार्टी से निकाल देना कहाँ तक उचित है?
खैर, आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही इस लड़ाई का दूसरा पहलू दिल्ली के कोटे में आने वाली तीन राज्यसभा सीटें भी हो सकती हैं। गौरतलब है कि आने वाले कुछेक सालों में राज्यसभा की तीन सीटों पर सीधा हक आम आदमी पार्टी का होगा। इसके साथ ही राज्यसभा में जाने वाले संभावित नामों पर चर्चा करें तो वरिष्ठता के आधार पर इन तीनो सीटों पर पहला हक योगेन्द्र, प्रशांत व कुमार विश्वास का ही होता है और इसी वजह से पार्टी प्रवक्ता आशुतोष व आशीष खैतान जैसे नेताओं के लिए राज्यसभा की यह डगर बेहद मुश्किल हो सकती थी। बहरहाल, अब जब पार्टी ने अपने दोनों वरिष्ठ नेताओं से किनारा कर लिया है, तो अब यह मसला काफी हद तक सुलझता हुआ नज़र आरहा है।
खैर, पार्टी के भीतर लगी इस आग की सच्चाई भले ही कुछ भी हो लेकिन एक बात तो तय है कि आने वाले कुछेक वर्षों में देश के कई प्रदेशों में होने वाले चुनावों में पार्टी विस्तार के समय इस लड़ाई के और भी तेज़ होने के असार दिखाई पड़ रहे हैं।
मदन तिवारी
वेब पत्रकार, नईदुनिया
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